Tuesday, January 4, 2011

भावांजलि

आज इस अनुवाद की अंतिम कड़ी है, आप सभी का आभार जिन्होंने इस अनुवाद को पढ़ा व पसंद किया, कल से यह ब्लॉग नए नाम के साथ जारी रहेगा.



छुपते तुम मन की आँखों से
पर मिलते हो प्रतिपल मुझसे,
छल सकते जग को जादूगर
कैसे निकलोगे अंतर से !

इस भांति झुकूं सजदे में मैं
जन्मों की प्यास बुझे मन की,
अर्पित हो मन इन चरणों पर
साध पूर्ण हो जीवन की !

कैसे कहूँ हृदय की वाणी
कैसे खोलूं अपना अंतर,
कैसे जग को तुममें देखूं
कैसे तुममें जग, हे ईश्वर !

2 comments:

  1. अंतिम रचना अत्यंत ही सुन्दर है....साधुवाद

    ReplyDelete
  2. अनीता जी,
    कैसे कहूँ हृदय की वाणी
    कैसे खोलूं अपना अंतर,
    कैसे जग को तुममें देखूं
    कैसे तुममें जग, हे ईश्वर !
    बहुत ही सुन्दर !बहुत ही सरस !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

    ReplyDelete