Friday, October 14, 2011

विवेक चूड़ामणि



सूक्ष्म शरीर (शेष भाग)

स्वप्न में यह कर्ता है बनता, स्वयं ही भिन्न रूप यह धरता
जाग्रत में जो अनुभव होते, सूक्ष्म देह ही उन्हें दिखाता

साक्षी किन्तु रहे असँग, कर्मों से वह लिप्त न होता
सूक्ष्म देह है साधन उसका, स्वयं सदा ही मुक्त ही रहता

नेत्र, श्रवण यदि रोगी हैं, दोष उन्हीं के माने जाते
आत्मा के वे धर्म नहीं हैं, उसको ये छू भी न पाते

प्राण

श्वास-प्रश्वास, जम्हाई, छींक, कम्पन तन का या हिलना
ये सारे प्राणों से संभव, भूख-प्यास भी धर्म प्राण का

अहंकार

देह भीतर, इन्द्रियों में, चिदाभास के तेज से व्याप्त
मैं हूँ अंतः करण में स्थित, अहंकार होता है ज्ञात

कर्ता यही भोक्ता भी है, तीन गुणों से युक्त हो रहता
सुख-दुःख धर्म अहंकार के, सदा अलिप्त आत्मा रहता

आत्मा है प्रेम का कारण

विषय सुखद न होते स्वयं में, उन्हें आत्मा प्रिय बनाता
एक आत्मा के होने से, सारा खेल रचा जाता

सदासुख स्वरूप आत्मा, दुःख से सदा दूर ही रहता
नींद में कोई विषय नहीं है, फिर भी आनंद अनुभव होता

श्रुति यही कहती आयी है, प्रत्यक्ष भी कर लें ज्ञान
वेद-पुराण यही कहते हैं, मौजूद अनुमान-प्रमाण
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6 comments:

  1. जीवन सत्य से परिचित कराती सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. बहुत सुन्दर, सार्थक प्रस्तुति| धन्यवाद|

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आभार .

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  4. अनीता जी बहुत ही सुन्दर रचना आप की ज्ञानवर्धक सटीक ...यथार्थ को दर्शाते हुए
    भ्रमर ५

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  5. हम तो ज्ञान लाभ कर रहे हैं।

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  6. वाह ... किता कुछ समेट दिया एक पोस्ट मैं ..

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