Thursday, July 30, 2015

कुब्जा के कुचक्र से कैकेयी का कोपभवन में प्रवेश

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

नवम सर्गः

कुब्जा के कुचक्र से कैकेयी का कोपभवन में प्रवेश 

जम जाएगी जड़ भी उनकी, आजीवन फिर स्थिर रहेंगे
राम के वनवास से उनके, सभी मनोरथ पूरे होंगे

राम न रहेंगे राम तब, भरत शत्रुहीन नृप होंगे
जब तक लौटेंगे वे वन से, भरत पूर्णतया दृढ़ होंगे

सैनिक बल का संग्रह होगा, जितेन्द्रिय तो हैं पहले से
दृढ़मूल हो जायेंगे वे, अपने मित्रों के साथ से

निर्भय होकर तुम राजा को, अपने वचनों में बाँध लो
श्रीराम के अभिषेक के, संकल्प से उन्हें हटा दो

ऐसी बातें कह कर उसने, कैकेयी को फिर समझाया
उसकी बुद्धि में अनर्थ को, अर्थ की तरह बिठाया

कैकेयी ने किया भरोसा, मन ही मन प्रसन्न हुई
यद्यपि थी अति समझदार वह, कुबड़ी की बातों में आयी

तू है एक श्रेष्ठ स्त्री, कहा मंथरा से तब उसने
बुद्धि द्वारा किसी कार्य का, उत्तम तू निश्चय करने में

केवल तू मेरी हितैषिणी, सावधान रह हित करती
समझ न पाती षड्यंत्र यह, यदि तू सचेत न करती

सब कुब्जाओं में श्रेष्ठ है, शेष सभी हैं बड़ी पापिनी
टेढ़ी-मेढ़ी, बेडौल वे, तू है जैसे झुकी कमलिनी

झुकी हुई फिर भी सुंदर है, कंधों तक ऊंचा है सीना
कृश उदर, जघन विस्तृत, चन्द्र समान है तेरा मुखड़ा

करधनी की लड़ियों से सुशोभित, स्वच्छ कटि का भाग अग्र
सटी हुई पिंडलियाँ तेरी, बड़े-बड़े दोनों हैं पग

रेशम की साड़ी पहन के, जब तू मेरे आगे चलती
है विशाल उरुओं से सुशोभित, तेरी बहुत शोभा होती  

असुरराज शम्बर जिन-जिन, मायाओं को जाने है
वे सब तेरे हृदय में स्थित, अन्य भी माया जाने है

रथ के नकुए के समान है, बड़ा सा यह कूबड़ तेरा
मायाओं का यह समूह है, मति, स्मृति, बुद्धि वाला

राज्य भरत को यदि मिला, राम चले गये वन को
सफल मनोरथ संतुष्ट हो, पुरस्कार दूंगी मैं तुझको

पहनाऊँगी इस कूबड़ को, तपे हुए सोने की माला
स्वर्ण का टीका, आभूषण भी, चन्दन का लेप लगा

सुंदर गहने व वस्त्र धर, देवांगना सम विचरेगी
गर्व करेगी सौभाग्य पर, शत्रुओं में मानी जाएगी

करती मेरी पद सेवा तू, उसी तरह अन्य कुब्जाएं
सजी धजी तेरे चरणों की, सदा करेंगी परिचर्याएं

कुब्जा सुन प्रशंसा अपनी, तब कैकेयी से यह बोली
लेटी जो शुभ्र शैया पर, वेदी पर प्रज्ज्वलित अग्नि सी

पानी निकल जाने पर नद का, बाँध नहीं बांधा जाता
शीघ्र करो अपना कल्याण, समय निकलता है जाता

कोप भवन में जाकर तुम, राजा को निज दशा बताओ
व्यर्थ न हो वरदान मांगना, बातों में न समय बिताओ

सुनकर ऐसा संग उसके ही, कोप भवन में जा पहुंची
बहुमूल्य आभूष्ण तन से, विलग कर फेंकने वह लगी

वशीभूत हुई थी बातों में, धरती पर लोटकर बोली
नहीं प्रयोजन अब रत्नों से, न विभिन्न भोजनों से ही

राज्याभिषेक यदि हुआ राम का, होगा अंत मेरे जीवन का
पुनः मंथरा ने दोहराया, प्रयत्न करो भरत के हित का

कुब्जा ने जब वचन बाण से, घायल कर डाला रानी को
बोली, मैं कुछ नहीं चाहती, न रखना चाहूँ इस जीवन को

कह ऐसे कठोर वचन तब, लेट गयी खाली भूमि पर
स्वर्ग से भूतल पर गिरी हो, लगती उस किन्नरी के सम

बढ़े हुए क्रोध से धूमिल, उसका मुख जान पड़ता था
डूब गये हों जिसके तारे, ऐसे नभ सा तन लगता था

  इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में नौवाँ सर्ग पूरा हुआ.




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