Thursday, June 15, 2017

दुखी हुए राजा दशरथ का कौसल्या को हाथ जोड़कर मनाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्विषष्टितम: सर्गः

दुखी हुए राजा दशरथ का कौसल्या को हाथ जोड़कर मनाना और कौसल्या का उनके चरणों में पड़कर क्षमा माँगना

शोकमग्न हो कुपित हुई जब, वचन कहे कटु कौसल्या ने
दु:खित हुए राजा दशरथ तब, अति अधिक चिंता में पड़ गये

मोह से ढकीं इन्द्रियां सारी, बहुत देर तक अचेत रहे
शत्रु को भय देने वाले, राजा दीर्घ श्वासें भरते थे

दुःख में पड़े हुए उनको फिर, दुष्कर्म इक याद हो आया
अनजाने में हुआ उनसे, शब्द बेधी जब बाण चलाया

उस दुःख से व राम वियोग से, बड़ी वेदना छायी मन में
मुख नीचे कर लगे काँपने, हाथ जोड़कर तब यह बोले 

हाथ जोड़ मैं तुम्हें मनाता, यूँ मेरे प्रति न क्रोध करो
वात्सल्य और दया से पूरित, मुझे कठोर वचन न कहो

हो गुणवान या गुणहीन ही, सती पति को देव समझती 
 धर्म में तुम तत्पर रहती, भले-बुरे को खूब जानती

यद्यपि तुम अतीव दुखी हो, मैं भी तो दुःख से पीड़ित हूँ
कहो कठोर वचन तुम मुझसे, अल्प भी यह तुमको उचित है

दुखी हुए राजा के मुख से, करुणाजनक वचन ये सुन कर
कौसल्या के अश्रु बह चले, ज्यों परनाली से गिरता जल

 कमल समान जुड़े करों को, अति घबराकर लगाया सिर से
रोने लगीं अधर्म के भय से, इक-इक शब्द लगीं कहने

देव ! पड़ी हूँ मैं धरती पर, चरणों में सिर क्षमा माँगती
यदि आपने करी याचना, भगवन, तब तो मैं मारी गयी

यदि मुझसे अपराध हुआ हो, क्षमादान  के योग्य हूँ मैं
इहलोक तथा परलोक में भी, पति पूजनीय है स्त्री से

पति द्वारा जो जाती मनाई, कुल स्त्री वह नहीं कहलाती
स्त्रीधर्म जानती हूँ मैं, सत्यवादी आपको जानती

अकथनीय बात जो कह दी, निकली पुत्रशोक के कारण
शोक धैर्य को मिटा डालता, हर लेता सब शास्त्रज्ञान

शोक समान नहीं कोई शत्रु, कर देता है विनष्ट सभी 
शस्त्रों का प्रहार सह सकते, नहीं दैववश अल्प शोक भी

श्रीराम को जंगल में गये, पांच रात्रियाँ बीत गयीं हैं
 इनको ही गिनती रहती हूँ, पांच वर्ष समान बीती यें

श्रीराम का चिन्तन करते, शोक हृदय का बढ़ता जाता
जैसे नदियों के वेग से, सागर का जल अति बढ़ जाता

कौसल्या शुभ वचन बोलतीं, रात्रिकाल तब तक आ पहुंचा
सुन राजा को  हुई प्रसन्नता, निद्रा ने आ उनको  घेरा

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ.



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