Wednesday, August 23, 2017

मंत्रियों का राजा के शव को तेल से भरे हुए कड़ाह में सुलाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षट्षष्टितमः सर्गः

राजा के लिए कौसल्या का विलाप और कैकेयी की भर्त्सना, मंत्रियों का राजा के शव को तेल से भरे हुए कड़ाह में सुलाना, रानियों का विलाप, पूरी की श्रीहीनता और पुरवासियों का शोक

बुझी अग्नि, जलविहीन समुद्र, आभाहीन सूर्य की भांति
शोभाहीन देखा राजा को, कौसल्या हुईं अति दुखी

शोकाकुल हो अश्रु बहातीं, ले  गोद राजा का मस्तक
कैकेयी से वे तब बोलीं, राज्य भोग तू हो अकंटक

सफल हुई है तेरी इच्छा, त्याग पति को हो एकाग्र
राम गये वन, पति सिधारे, असहाय मैं प्राण दूँ त्याग

नारी धर्म को त्यागा जिसने, कैकेयी समान कौन स्त्री 
देवस्वरूप पति को त्याग, जीना चाहे कोई न दूजी

धन का लोभी विष दे देता, हत्या को नहीं माने दोष
कुब्जा के कहने में आकर, कुल का किया है इसने नाश

श्रीराम को भेजा वनवास, राजा से अनुचित करवाया
राजा जनक यह जब जानेंगे, अति दुःख उनको भी होगा

विधवा और अनाथ हुई मैं, नहीं ज्ञान राम को इसका 
जीते जी ही हुए दूर वे, दुःख पा रही पुत्री सीता

पतिसेवा का तप करती जो, दुःख पाने के योग्य नहीं है
उद्वगिन हो उठेगी सीता, वन में पीड़ा अनुभव करके 

रात्रि काल में पशुओं का जब, शब्द भयानक वन में होगा
श्रीराम की शरण ही लेगी, भयभीत होकर तभी सीता

वृद्ध पिता जो कन्याओं के, जनक पुत्री की चिंता करके
डूबे हुए अति शोक में, प्राणों का परित्याग करेंगे

मैं भी आज ही वरण करूँगी, पतिव्रता भांति मृत्यु का
 चिता की अग्नि में प्रवेश कर, कर आलिंगन पति देह का

पति देह को लगा हृदय से, करती जो दुःख से आर्त विलाप
दूर किया उन्हें स्त्रियों द्वारा, राज मंत्रियों ने तब आकर

तेल भरे कड़ाहे में तब, राजा की देह को रखवाया
शव रक्षा को कह वशिष्ठ ने, राज काज पर ध्यान लगाया

झरने से आँसू बहते थे, हाथ उठा कर वे रोती थीं
 राजा भी अब विदा हो गये, पुत्र शोक से हम व्याकुल थीं

श्रीराम से बिछुड़ गयी, कैसे रहेंगी कैकेयी संग 
जिसने सबको त्याग दिया है, हम पर आया भारी संकट

महाशोक से ग्रस्त हुईं वे, अश्रु बहाती चेष्टा करतीं
लुट गया आनंद था उनका, रोती थीं वे मोहित हुई सी

राजा दशरथ से हीन हुई, श्रीहीन अयोध्या लगती
तारों हीन रात्रि हो जैसे, पतिविहीन नारी की भांति

नगर निवासी सब आकुल थे, कुलवती महिलाएं रोती थीं
चौराहे, घर द्वार सूने थे, पुरी नहीं शोभा पाती थी

राजा दुःख से स्वर्ग सिधारे, रानियाँ भूमि पर लोटतीं
सूर्य अस्त हुए इस दुःख में, अंधकार ले रात्रि आ गयी

राजा का अंतिम संस्कार, पुत्र बिना नहीं सम्भव होगा
सभी सुहृदों की राय यही थी, शव उनका रक्षित रखा था

प्रभाहीन आकाश हुआ था, शोभाहीन रात्रि लगती थी
आँसू से अवरुद्ध कंठ ले, चौराहों पर भीड़ खड़ी थी

झुण्ड के झुण्ड मिल पुरुष, स्त्रियाँ, कैकेयी की निंदा करते
नहीं कोई भी सो पाता था, शोकाकुल थे सब हो रहे


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ.

No comments:

Post a Comment